Monday 3 March 2014

3- टिहरी बांध : झील में खेल

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टिहरी बांध : झील में खेल, भाग-3

http://hindi.indiawaterportal.org/node/46919 

Author: 
विमल भाई
टी.एच.डी.सी. ने सरकार को बांध से 5 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी गतिविधि चलाने पर पाबंदी लगाई है। अभी लंबी लड़ाई के बाद भी सुरक्षा कारणों से बांध से उस पार जाने के लिए के रास्ता के इजाज़त स्थानीय लोगों को नहीं है। जबकि जो रास्ता दिया गया है उसकी हालत बहुत ही खराब है। सरकारी या अन्य ‘बड़े‘ लोगों को बांध पर रास्ता दिया जाता है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। टिहरी बांध के कारण भागीरथी-भिलंगना के निवासियों के पास से बहती नदी और उसके लाभ चले गए। आज स्थानीय लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं आशंका है कि वैसे ही अब झील भी पर्यटन के नाम पर ना छिन जाए।

टिहरी बांध की झील भरने के बाद सर्वे आफ इंडिया ने डूब की पूर्वलाईन गलत होने के कारण जिन्हें विस्थापित माना उनका पुनर्वास भी अभी तक नहीं हो पाया है। झील के किनारे के लगभग 80 गाँवों में भूस्खलन के कारण नया विस्थापन शुरू हुआ है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति तो झील के पार की है, जिसे कट आॅफ एरिया कहा जा रहा है। झील में पर्यटन की संभावनाओं व योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं दूसरी तरफ झील के किनारे के गाँवों में आ रही दरारों, भूस्खलन, धसान आदि का पूरा आकलन करने में बांध कंपनी व सरकारों की कोई इच्छा नहीं है।

टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? यह विवाद का विषय नहीं वरन् समझ का विषय है। भागीरथी घाटी के विकास व संरक्षण के लिए टिहरी बांध परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 में शर्त संख्या 3.7 में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय को 31.3.1991 तक ‘भागीरथी घाटी प्रबंधन प्राधिकरण’ बनाने के निर्देश दिए गए थे। जिसे वास्तव में लगभग 22 साल बाद 2003 में फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया तब 2005 में इसे वास्तविक रूप में बनाया गया। इस प्राधिकरण ने भी टिहरी झील में पर्यटन के लिए 15 सितंबर 2006 को नई टिहरी में बैठक का आयोजन किया था। जिसमें एक विस्तृत योजना बनी थी। जिसमें तत्कालीन व पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने खास रुचि ली थी। राज्य सरकार ने एक ‘झील प्राघिकरण’ भी बनाया है। जिसकी अब तक बैठक तक नहीं हो पाई है।

टिहरी जिला पंचायत ने 13 अक्तूबर 2011 को टिहरी व कोटेश्वर बांध झीलों के महापर्यटन के लिए लाइसेंस प्रक्रिया पर आमंत्रित सुझावों पर बैठक करके झील पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश की। इसके लिए अखबार में जो नोटिस दिया गया था उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वहां बड़े पूंजीगत पर्यटन को ध्यान में रखकर ही काम हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र श्री साकेत बहुगुणा बड़ी-बड़ी बाहरी कंपनियां को बुलाने के पक्ष में निर्देश दे रहे थे। अब स्थिति बदली है नए मुख्यमंत्री जी क्या करेंगे? 300 के करीब आवेदन जिले में दिए गए हैं। जिसमें बाहर के लोग भी हैं। अपुष्ट जानकारी के आधार पर दोनो बांधों के निर्माण में लगे ठेकेदारों ने पहले की झील किनारे की काफी ज़मीन पर कब्जा कर रखा है। विस्थापितों की मांग के बावजूद उन्हें झील किनारे की जमीन का टुकड़ा नहीं मिला।

टी.एच.डी.सी. ने सरकार को बांध से 5 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी गतिविधि चलाने पर पाबंदी लगाई है। अभी लंबी लड़ाई के बाद भी सुरक्षा कारणों से बांध से उस पार जाने के लिए के रास्ता के इजाज़त स्थानीय लोगों को नहीं है। जबकि जो रास्ता दिया गया है उसकी हालत बहुत ही खराब है। सरकारी या अन्य ‘बड़े‘ लोगों को बांध पर रास्ता दिया जाता है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। मात्र कुछ रुपए देकर यह अधिकार नहीं छीना ला सकता है।

सही तो यह है कि टिहरी बांध और कोटेश्वर बांध की झीलों संबंधी सभी रोजगारों पर जैसे मछली पकड़ना, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी सभी कामों में टिहरी बांध विस्थापितों को हक मिले। प्रभावित गाँवों के लोगोंं में खासकर धनार लोग, पुश्तैनी नाविक और मछली का काम करते रहे हैं। उनकी बेरोजगारी दूर करने के लिए उन्हें मछली व बोट का काम दिया जा सकता है।

कुछ युवकों ने हिमाचल में जलक्रीड़ा संबंधी प्रशिक्षण भी लिया है वे जलक्रीड़ा के सभी उद्यमों में सफल हैं और अन्यों को प्रशिक्षण देने की क्षमता भी रखते हैं। उन्हें चूंकि स्थानीय परिस्थितियों के बारे में सब पता है इसलिए वे इन सब कामों के उपयुक्त व नीति सम्मत भी रहेंगे। लोगों को पर्यटन आदि में भी यदि रोज़गार के अवसर दिए जाए तो यह उनके सामाजिक व आर्थिक स्तर को ना केवल ऊंचा उठाएगा साथ ही पर्यटकों को भी स्थानीय समझ के साथ उच्चस्तरीय सुविधा मिलेगी।

बांध प्रभावितों/स्थानीयों को नौकायन, जलक्रीड़ा, राफ्टिंग, मत्स्य पालन में मात्र सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं वरन् अधिकार मिलना चाहिए। बांध प्रभावितों/स्थानीयों को झील संबंधी किसी भी तरह के व्यवसाय की लाईसेंस फीस न्यूनतम होनी चाहिए। 75 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक रखने की शर्त ही नहीं वरन् सभी कामों में 75 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय लोगों को हो। यहां स्थानीय से तात्पर्य झील के किनारे के गांववासी व विस्थापित से है, चाहे वो कहीं भी बसा हो। इससे सही मायने में पलायन रुकेगा और जो मुश्किलें विस्थापितों ने झेली है और अभी भी झेल रहे हैं, इससे उनका कुछ सहयोग हो पाएगा और जीवनस्तर भी कुछ उठ पाएगा। जिला पंचायत को ‘होम स्टे’ जैसी पद्धति, जिसमें पर्यटक घरों में रुकते हैं, को लाना चाहिए। एक सहकारी समिति के तहत यह व्यवस्था पूरे गांव में हो सकती है।

इस तरह की सहकारी समिति को लाइसेंस देकर जिला पंचायत स्थाई पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ स्थानीय विकास में भारी योगदान दे सकता है। देश में यह सफल रूप में कई स्थानों पर चलाई जा रही है। कुंमाऊ में, पिथौरागढ़ के मुन्सयारी गांव में ‘होम स्टे’ पद्धति, का लाभ ग्रामीण वर्षाें से उठा रहे हैं। पर्यटकों को भी उचित दर पर आवास और भोजन मिल जाता है। वे स्थानीय संस्कृति को भी समझ पाते हैं।

बड़ी पर्यटन परियोजना में महंगे लाइसेंस प्रभावशाली लोगोंं, व्यापारियों, बड़े ठेकेदारों या राजनैतिक हितों के पक्ष होंगे। वास्तव में ये छोटे स्तर के उद्यमियों के पक्ष में होनी चाहिए। जिससे स्थानीय लोगों का जिनमें खासकर महिलाएं हैं, जीवन स्तर सुधरेगा। इसके लिए आवश्यक है कि पर्यटन की छोटी परियोजनाएं हों जिन्हें स्थानीय लोग/ विस्थापित स्वयं या सहकारी समिति के माध्यम से चला सकें।

जहां ग्रामीणों को मत्स्य व्यवसाय, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी कामों की जानकारी ना हो वहां जिला पंचायत को स्थानीय स्तर पर उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। प्रशिक्षण के लिए टीएचडीसी से सहयोग की मांग करनी चाहिए। टीएचडीसी ‘‘व्यवसायिक सामाजिक दायित्व’’ के अंतर्गत स्वंय इसे कर सकती है। आखिर एकमुश्त आधा-अधूरा पुनर्वास देकर, टीएचडीसी प्रतिदिन करोड़ों रुपए कमा रही है। जिसमें से राज्य सरकार भी 12 प्रतिशत हिस्सा लेती है। इसलिए प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था दोनों का ही दायित्व है।

महापर्यटन में रोजगार का नया भ्रम दिखाकर लोगों को छलने से बेहतर होगा की झीलों में पर्यटन पर एक खुली बैठक बुलाई जाए। किसी भी तरह से पर्यटन, पर्यावरण व स्थानीय संस्कृति की रक्षा व उसके साथ सामंजस्य के साथ होना चाहिए। नए मुख्यमंत्री जी को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए।

2- टिहरी बांध : उजड़े पर गिनती में नहींं 1-3-2014

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टिहरी बांध : उजड़े पर गिनती में नहींं, भाग-2

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विमल भाई
2005 से केन्द्रीय जल आयोग की कोई रिपोर्ट नहीं आई जो बताती कि टिहरी बांध झील की जल गुणवत्ता क्या है? हर बरसात में मृत जानवर, लावारिस लाशें, कचरा आता है इसे हटाने के लिए कोई योजना नहीं है। 7 वर्षों में कोई सफाई नहीं हुई है। किनारे रहने वालों और नई टिहरी जहां झील से ही पीने का पानी की आपूर्ति होती है वहां पर पाचन, गैस व यूरिक एसिड की शिकायतें बढ़ी हैं। इन क्षेत्रों मे 80 प्रतिशत जलापूर्ति हैंडपम्प से होती है।
टिहरी बांध से विस्थापितों की दुर्दशा तो है ही पर जरा टिहरी बांध की झील के पास की स्थिति की बानगी भी देख लें। भिलगंना नदी में जहां टिहरी की झील 25 किलोमीटर तक अंदर गई है। वहां नंदगांव में 865 मी. के पास रहने वाले 20 परिवारों की खेती झील में समा गई है, घरों में दरारें आई हैं। लोग धरने करते जा रहे हैं। सरकार सुनती नहीं।

झील के किनारे के लगभग 80 के करीब गाँवों की जमीनें धसक-सरक रही हैं। हर बरसात में झील का पानी बढ़ता है और गर्मी में जब पानी नीचे उतरता है तो यह धसकना-सरकना शुरू हो जाता है। मदन नेगी सहित कितने ही गाँवों के मकान खत्म हो गए या होने के कगार पर है। राज्य व केन्द्र सरकारें झील के किनारे रहने वालों के लिए अलग नीति की बात करती रही है। सर्वोच्च अदालत के दबाव पर ही एक नई नीति बनाई गई है।

झील के कारण सामाजिक ताना-बाना टूटा है। सुख-दुख में लोग साथ नहीं हो पा रहे हैं। 9 वर्षों में भागीरथीगंगा में टिहरीबांध झील प्रभावित क्षेत्र में महज एक रिश्ता हुआ।

बात थोड़ी पुरानी है पर यह घटित होता ही रहता है। 14 दिसंबर, 2012 को एक बारात, जिसमें लगभग 150 लोग थे, नई टिहरी के बौराड़ी से रौकोट वापिस जानी थी। किंतु झील पार करने के लिए बोट उपलब्ध नहीं थी जबकि पहले बात की गई थी। शाम 4 बजे से रात 11 बजे तक ठंड में बैठना पड़ा। उच्चाधिकारियों से बहुत संपर्क करने के बाद रात को 11 बजे लोग झील पार कर पाए। 5 बच्चों की तबियत भी खराब हुई।

भागीरथी व भिलंगना में 10 पुल डूबे हैं। भागीरथी में छामबाजार के झूला पुल व भिलंगना में घोंटीबाजार के झूला पुल से 30-30 गांव का सम्पर्क था। भल्डियाणागांव वाले पुल से बस जाती थी अब नए बने पुल से मात्र जीप जा सकती है किंतु उसके रास्ते नहीं बने हैं इसलिए यातायात नहीं हो पाता हैै। पीपलडाली के पुल से भी मात्र जीप जाती है। अन्य 3 मोटरपुल अभी योजना स्तर पर है।

बांध की झील में पर्यटन की योजनाओं के अंबार लग गए हैं, पर्यटन मेले-कार्यक्रम भी हो गए पर कोई योजना सिरे अभी तक नहीं पहुंची है। दूसरी तरफ झील तक पहुंचने के संपर्क मार्ग है ही नहीं। ढलानों के विकट रास्तों के कारण मुश्किल से लोग बोट तक पहुंचते हैं। उदाहरण के लिए ओणम से 3 किमी., मल्ला से 2 किमी., बैलगांव से 3 किमी. कई गांवोें से 1-2 किमी. झील दूर है। कुमराडा, बलडोगी, खामली, मजीर, मडगांव आदि में रास्ते नहीं हैं। झील का जलस्तर घटता है तो समस्या और भी विकट हो जाती है। फिसलने का खतरा हमेशा बना रहता है। बीसीयों लोग व 70 से ज्यादा पशु मारे गए हैं।

2005 से केन्द्रीय जल आयोग की कोई रिपोर्ट नहीं आई जो बताती कि टिहरी बांध झील की जल गुणवत्ता क्या है? हर बरसात में मृत जानवर, लावारिस लाशें, कचरा आता है इसे हटाने के लिए कोई योजना नहीं है। 7 वर्षों में कोई सफाई नहीं हुई है। किनारे रहने वालों और नई टिहरी जहां झील से ही पीने का पानी की आपूर्ति होती है वहां पर पाचन, गैस व यूरिक एसिड की शिकायतें बढ़ी हैं। इन क्षेत्रों मे 80 प्रतिशत जलापूर्ति हैंडपम्प से होती है।

नई टिहरी में अभी लोग टिन शेडो में पड़े हैं। विस्थापितों के प्लाटों पर कब्जे हैं। नई टिहरी बार एशोशिएसन के अनुसार टिहरी देहरादून को मिलाकर 100 से ज्यादा फ्लैटों पर बांध कंपनी टीएचडीसी का कब्जा है। पुरानी सुविधाओं के स्थान पर विस्थापितों को नए शहर में सब वैसा ही मिलना चाहिए था उसके लिए विस्थापितों का नागरिक मंच कितने ही धरने-प्रर्दशन-भूख हड़ताले कर चुका। पर समस्याएं जस की तस। समाधान सब सरकारें करने को कहती है पर करता कोई नहीं।

प्रश्न यह है कि जब टिहरी बांध में लगे हर कण के बारे में योजना थी, हर कर्मचारी के भत्ते व परिवार के रहने तक की योजना व पैसे का इंतजाम था है और समय-समय पर उसके लिए व्यवस्थित रूप से सोचा और क्रियान्वित भी किया जाता है तो पुनर्वास की समस्याओं का अध्ययन क्यों नहीं किया गया। उसके लिए पूरे पैसे का इंतजाम क्यों नहीं किया गया। बांध विरोधी आंदोलन ने सरकार को योजना बनाने से नहीं रोका था। आंदोलन के बावजूद बांध संबंधी योजनाएं तो बनती ही रहीं और अब सरकारें पैसे का रोना रोकर काम नहीं करना चाहती हैं। पर यदि समाधान हो जाएगा तो मगरमच्छी आंसू बहाकर वोट कैसे बटोरे जाएंगे। टिहरी बांध मात्र एक उदाहरण है राज्य व देश के सभी चालू बांधों की स्थिति ऐसी ही है।

उत्तराखंड में बांध बनाने के लिए हल्ला मचाने वाला कोई इन बातों की चिंता नहीं करता ना बोलता है। नए बांधों के लिए देहरादून में कई धरने-जल से आयोजित किए गए। विश्वबैंक पोषित करोड़ों की सरकारी परियोजनाओं को चलाने वाले एनजीओ के मालिक जी ने राज्य के रूके बांध चालू ना होने की स्थिति में अपना पद्मविभूषण वापिस करने की घोषणा भी कई बार की। यूं वापिस नहीं किया।

जो लोग सिर्फ बांध बनाओं की माला जपते रहते हैं वे इस ओर ध्यान क्यों नहीं दे पाते की चालू बांधों की स्थिति क्या है। विस्थापितों का पुनर्वास क्यों नहीं हो पाया? पर्यावरण का कितना नुकसान हुआ, भरपाई हुई या नहीं? जलसंग्रहण क्षेत्र का उपचार हुआ या नहीं? क्या बांध उतनी बिजली भी पैदा कर रहे हैं जितने का दावा था? किसी बांध की कोई निगरानी नहीं। विकास का जो दावा किया जाता है क्या वो पूरा भी हुआ है।

बांध से विकास का लाभ किसको गया है? स्थायी रोजगार कितना मिला और आजीविका के स्थायी साधन कितने खत्म हुए? ऐसी की लंबी सूची है। जिस तरफ बांध समर्थकों का कोई ध्यान नहीं है चूंकि इन सबके स्वार्थ उन बांध कंपनियों और विश्वबैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी बांध के लिए धन देने वाली संस्थाओं के साथ जुड़े है। जिनको ना विस्थापितों, ना पर्यावरण और ना ही इस बात मतलब है कि बस ऊर्जा प्रदेश का हल्ला मचाते रहो। नए बांधों से पहले पुराने बांधों की स्थिति को भी तो जान लिया जाए। उनके लिए कुछ कर दीजिए साहब!

Saturday 1 March 2014

1- टिहरी बांध : अनदेखी कब तक, 1-3-2014

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टिहरी बांध : अनदेखी कब तक, भाग-1

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विमल भाई
सर्वोच्च न्यायालय में टिहरी बांध का 22 वर्ष से एन. डी. जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार वाला केस सुना जा रहा था। सरकारी वकील दलील देते हैं कि टिहरी बांध से बिजली पैदा हो रही है, कोटेश्वर बांध भी बन गया है। पर विस्थापितों की समस्याएं समझी नहीं गई। इन सबके चलते भागीरथीगंगा समाप्ति की कगार पर पंहुच गई। टिहरी बांध की समस्याएं नासूर की भांति लगातार बहती ही रहती है। विस्थापित लोग और पर्यावरण इस दर्द को झेलते हैं। माटू जनसंगठन ने फिर उत्तराखंड सरकार को टिहरी बांध विस्थापितों के भूमिधर अधिकार और साथ ही बरसों पुराने विस्थापित स्थलों पथरी भाग 1,2,3 व 4 में शिक्षा, स्वाथ्यय, यातायात, सिंचाई व पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधायें तुरंत पूरी करने की बाबत याद दिलाया है।

याद रहे कि टिहरी बांध की गौरव गाथा गा-गाकर बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम जो टीएचडीसी के नाम से प्रचारित है उसे और भी कई नए बांधों के ठेके मिल गए हैं। किंतु पथरी भाग 1, 2, 3 व 4 हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बांध विस्थापितों के मामले 30 वर्षाें से लंबित है। यहां लगभग 40 गाँवों के लोगों को पुनर्वासित किया गया है। यहां 70 प्रतिशत विस्थापितों को भूमिधर अधिकार भी नहीं मिल पाया है।

बिजली, पानी, सिंचाई, यातायात, स्वास्थ्य, बैंक, डाकघर, राशन की दुकान, पचांयत घर, मंदिर, पितृकुट्टी, सड़क, गुल, नालियां आदि और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु दिवार व तार बाढ़ तक भी व्यवस्थित नहीं है। बीसियों वर्षों से यह सुविधाएं लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाई है। यदि कहीं पर किसी तरह से कुछ व्यवस्था बनी भी है तो स्थिति खराब है। स्कूल भी कुछ ही वर्षों पहले बना है वो भी मात्र 10वीं तक है।

प्राथमिक स्कूलों की इमारतें बनी हैं पर अध्यापक नहीं है। स्वास्थ्य सेवाएं तो हैं ही नहीं। रास्ते सही नहीं हैं तो निकासी नालियां भी नहीं है। यातायात की सुविधाएं भी नहीं हैं। लोगों को मात्र जंगल में छोड़ दिया गया है। अपने बूते पर विस्थापितों ने मकान बनाए हैं।

अभी उत्तराखंड में नए मुख्यमंत्री आए हैं। उनके पूर्व मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा ने हर चुनाव के समय टिहरी का मुद्दा उठाया था उन्होनें कहा था कि वे विस्थापितों के लिए सर्वोच्च अदालत में जाएंगे। यह भी कहा की राज्य के पास मुफ्त मिलने वाली बिजली के करोड़ो रुपए हैं उसे क्यों नहीं विस्थापितों के लिए खर्च किया जाता? यह भी तथ्य है की वे कभी अदालत नहीं आए।

किंतु जब वे मुख्यमंत्री थे तो भी उन्होंने विस्थापितों के लिए नहीं किया। अब नए मुख्यमंत्री हरीश रावत जी हैं उनसे ये आशा चूंकि वे जहां से चुनकर आए हैं वहीं टिहरी बांध के विस्थापितों को तथाकथित तरीके से बसाया गया है। यह पत्र दिया गया। चूंकि केन्द्र व राज्य में उन्हीं की पार्टी की सरकार है। वैसे इन कार्यों के लिए टिहरी बांध परियोजना से, जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, मिलने वाली 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के पैसे का उपयोग किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय में टिहरी बांध का 22 वर्ष से एन. डी. जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार वाला केस सुना जा रहा था। सरकारी वकील दलील देते हैं कि टिहरी बांध से बिजली पैदा हो रही है, कोटेश्वर बांध भी बन गया है। पर विस्थापितों की समस्याएं समझी नहीं गई अदालत में भी उलटे-सीधे शपथ पत्र दाखिल किए जाते हैं। इन सबके चलते भागीरथीगंगा समाप्ति की कगार पर पंहुच गई।

टिहरी बांध की समस्याएं नासूर की भांति लगातार बहती ही रहती है। विस्थापित लोग और पर्यावरण इस दर्द को झेलते हैं। जितना दर्द मवाद निकलेगा उतना ही राजनैतिक दलों को मुद्दा मिलेगा, कंपनी के वकीलों की आमदनी बढ़ती है, पुर्नवास कार्यालय को काम मिल जाता है। समस्या होगी तो हल्ला मचेगा फिर पैसा आएगा।

टिहरी बांध केस के कारण अरबों रुपए बांध कंपनी को पुनर्वास के लिए देने पड़े। 29 अक्तूबर 2005 में बांध की झील में पानी भरना चालू हो गया था। जुलाई 2006 में बांध के उद्घाटन के समय तत्कालीन उर्जामंत्री शिंदे जी ने घोषणा की थी कि पुर्नवास पूरा करेंगे, विस्थापितों को मुफ्त बिजली देंगे ऐसे वादे किए गए।

बीजेपी की राज्य सरकार ने ही 2010 में रिर्पोट बनाई की छूट गए पुनर्वास कार्यों के लिए पैसा चाहिए। 3 नवंबर 2011 को उच्चतम न्यायालय ने एक अरब रुपए अपूर्ण पुनर्वास व स्थलों की सुविधाएं पूरी करने के लिए दिए गए। सब खुश अदालत ने न्याय किया और बांध कंपनी ने कर्तव्य निभाया। पुर्नवास के रुके काम पूरे होंगे। कुछ राजनेता खुश की चलो पैसा मिला है। काम पूरा होगा। यक्षप्रश्न यह भी है कि राज्य सरकार बांध से मिली मुफ्त बिजली के पैसे को कहां खर्च कर रही है? विस्थापितों की वास्तविक स्थिति खराब है।

उदाहरण के लिए सुमन नगर शुरूआती यानि 1978 के टिहरी बांध विस्थापितों का पुनर्वास स्थल है हरिद्वार जिले में यही से गंगनहर निकलती है आधा किलोमीटर पर बिना पानी के खेत हैं लोग कहते हैं हमें पानी नहीं है तो हमें मजबूरन जमीन बेचनी ही पड़ेगी। बिजली आती नहीं है हमारे तार में से साथ में फैक्टरी वाला बिजली ले लेता है हमें बिजली भी नहीं, पीने का पानी गंदला है सूखने पर थोड़ा पीला हो जाता है।

गंगनहर से दिल्ली व पश्चिमी उत्तर प्रदेश को 200 क्यूसेक पीने का और सिंचाई को 300 क्यूसेक पीने के लिए अतिरिक्त पानी जाता है राज्य को 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के 1000 करोड़ के लगभग मिल चुके हैं।

इसी सुमन नगर में प्लाट नं0 366, 421 और 422 20 वर्ष पहले आवंटित हुए थे इन्हें भूमिधर अधिकार नहीं मिला। कारण की वो जमीन कागजों में नदी की जमीन है। विस्थापितों को भूमि आबंटन में कितने घोटाले हुए हैं इसकी जांच भी ज़रूरी है पर कौन करेगा? कोयले की कोठरी में काला ही काला है।

सरकार को मालूम है कि एक पीढ़ी बदलने के बाद लोग इसी तरह रहने के आदि हो जाएंगे और फिर कोई आवाज़ नहीं उठेगी। आखिर अब तक के बांधों से उन्होंने भी सीखा है ।