Sunday 15 April 2012

प्रेस विज्ञप्ति 14 अप्रैल 2012

        उत्तराखंड का स्थायी विकास मुख्य प्रश्न हो

नई राज्य सरकार ने आते ही बंद पड़ी जलविद्युत परियोजनाओं, जविप, को शुरू करने की मुहिम चालू की है। स्वामी सानंद जी के उपवास के बाद केन्द्र सरकार ने अलकनंदा की विष्णुगाड परियोजना 17-4-12 तक बंद की है।
हमारा मानना है कि उत्तराखंड का स्थायी विकास स्थानीय स्तर पर विद्युत उत्पादन और जन आधारित स्थानीय पर्यटन के आधार पर भी संभव है। राज्य सरकारों ने आज तक जिस उर्जा राज्य की हिमायत की है उसके परिणाम है नई टिहरी को बांध की झील में तैरती गंदगी का पानी मिलना, विष्णुगाड जविप से प्रभावित चाईं गांव की बर्बादी, आज तक विस्थापितों का पुनर्वास न होना और नदियों बढ़ता प्रदूषण।

राज्य की स्थिति यह है कि राज्य में आपदा प्रभावितों को बसाने के लिए भूमि नहीं है। टिहरी बांध से हो रहे नये विस्थापन के लिए भूमि का प्रश्न सामने खड़ा है। राज्य में खेती की मात्र 13 प्रतिशत भूमि बच रही है। पशु विहारों में ग्रामीणों को हक हकूकों से वंचित किया गया है। दाह संस्कार के लिए नदियों में पानी नहीं, बिजली के दाम बढ़ाये जा रहे हैं, स्थानीय आवश्यकताओं के लिए वन कटान पर पाबंदी है मगर दूसरी तरफ बांधों में हजारों हेक्टेयर भूमि, जंगल दी जा रही है। राज्य में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं हेतु आधारभूत संरचना की अत्यंत कमी है और जहां ये सुविधाएं हैं वहां उन्हें सुचारू रूप से चलाने हेतु समुचित संसाधनों का अभाव है।

जबकि राज्य को बने 11 वर्ष पूरे हो चुके हैं। दो राष्ट्रीय दलों की सरकारें कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं। दोनों ही दलों व सरकारों ने जोर-शोर से राज्य को उर्जा व पर्यटन राज्य के साथ-साथ अनेक तरह का राज्य बनाने की घोषणा की और तैयारी भी दिखाई। किन्तु नतीजा 11 साल बाद भी युवाओं के पलायन को रोकने में असफल रहा है। राज्य की पानी और जवानी के साथ बिजली और राजधानी भी मैदानों की ओर ही पलायित हुई है। इस संदर्भ में नयी सरकार के सामने नये तरह से सोचने की जरूरत है। आज आवश्यकता है ग्राम आधारित विकास के ढांचे की। ना कि उर्जा प्रदेश के पुराने राग को दोहरने की।

हम जल विद्युत परियोजनाओं के, बड़े बांधों के व उर्जा प्रदेश के या पर्यटन प्रदेश के अंधे विरोध में नहीं हैं। मगर हम चाहते हैं कि सरकार आज तक के बांधों पर श्वेत पत्र जारी करे। जिसमें पर्यावरण नुकसान और विस्थापन का सही आंकलन हो, सही लागत और बांधों की समस्याओं को झेलने वालों की स्थिति हो, कार्यरत बांधों से कितने स्थानीयों व प्रभावितांे को कितने समय तक किसी तरह का अस्थायी व स्थायी रोजगार मिल पाया है। राज्य से बाहर के कितने लोगों को व गैर प्रभावितों को किसी तरह का रोजगार मिल पाया है। साथ ही बांधों की पर्यावरण व वन स्वीकृतियों का कितना पालन हुआ, कितनी खेती भूमि व वन भूमि का स्थायी नुकसान हो गया है। बांध से उत्तराखंड की जल समस्या का कितना समाधान हुआ? यह सब इस श्वेत पत्र में होना चाहिए।

बड़े बांधों पर स्थायी रोक लगनी चाहिये। नदियों को सुरक्षित छोड़ना चाहिये। विकल्प के लिये हमारा सुझाव है कि-

1-स्थानीय ग्राम स्तर पर युवाओं को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित किया जाए कि वे सौर, जल, पवन और जैविक संसाधनों के आधार पर उर्जा निर्माण कर सकें। गांव में बिजली की खपत गांव के उत्पादन से पूरी हो सकती है।

2- इन सब कार्यो के लिए विशेष हरित कोष बनाया जाए, जिसमें केन्द्र व राज्य सरकार सहयोग करेे।

3- इसके लिए विशेष प्रशिक्षण केन्द्र ब्लाॅक खोले जाए।

4- ग्राम समिति द्वारा इसका संचालन हो।

5- जो लघु जलविद्युत परियोजनाएं राज्य में बंद पड़ी हैं, उसे शीघ्र शुरू किया जाए।

हम मानते हैं कि आस्था अपने में महत्वपूर्ण विषय है किन्तु बांधों के संदर्भ में तकनीकी, पयार्वरणीय पारिस्थितिकीय, जनहक के सवालों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है।

स्वामी सानंद जी कि मांग का सहारा लेकर आज की बहस को बांध के समर्थन और विरोध में ही नहीं ले जाना चाहिए वरन उत्तराखंड के स्थायी विकास को केन्द्र नजर रखते हए यहां के प्राक्तिक संसाधनों का दोहन नहीं अपितु सहयोगात्मक दृष्टिकोण लेकर विकास की योजनाएं बनानी चाहिए।

गंगा व यमुना मैदानों में अत्यंत बुरी स्थिति में है प्रदूषण ने नदियों को गंदे नाले में परिवर्तित किया है और बांधों की वजह से पहाड़ो में नदियों को या सुरंगों में डाला जा रहा है या बड़े जलाशयों में परिवर्तित किया जा रहा है। यह दोनों ही परिस्थितियां नदी और उससे जुड़ी स्थायी पर्यावरण और सभ्यता, संस्कृति बुरा भविष्य लायेंगी।

विमलभाई

समंवयक

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